MAA – माँ

है माँ…..

हमारे हर मर्ज की दवा होती है माँ….
कभी डाँटती है हमें, तो कभी गले लगा लेती है माँ…..
हमारी आँखोँ के आंसू, अपनी आँखोँ मेँ समा लेती है माँ…..
अपने होठोँ की हँसी, हम पर लुटा देती है माँ……
हमारी खुशियोँ मेँ शामिल होकर, अपने गम भुला देती है माँ….
जब भी कभी ठोकर लगे, तो हमें तुरंत याद आती है माँ…..

दुनिया की तपिश में, हमें आँचल की शीतल छाया देती है माँ…..
खुद चाहे कितनी थकी हो, हमें देखकर अपनी थकान भूल जाती है माँ….
प्यार भरे हाथोँ से, हमेशा हमारी थकान मिटाती है माँ…..
बात जब भी हो लजीज खाने की, तो हमें याद आती है माँ……
रिश्तों को खूबसूरती से निभाना सिखाती है माँ…….
लब्जोँ मेँ जिसे बयाँ नहीँ किया जा सके ऐसी होती है माँ…….
भगवान भी जिसकी ममता के आगे झुक जाते हैँ
– द्वारा कुसुम

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वो है मेरी मा

मेरे सर्वस्व की पहचान
अपने आँचल की दे छाँव
ममता की वो लोरी गाती
मेरे सपनों को सहलाती
गाती रहती, मुस्कराती जो
वो है मेरी माँ।

प्यार समेटे सीने में जो
सागर सारा अश्कों में जो
हर आहट पर मुड़ आती जो
वो है मेरी माँ।

दुख मेरे को समेट जाती
सुख की खुशबू बिखेर जाती
ममता की रस बरसाती जो
वो है मेरी माँ।

-देवी नांगरानी

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माँ और भगवान

मैं अपने छोटे मुख कैसे करूँ तेरा गुणगान
माँ तेरी समता में फीका-सा लगता भगवान

माता कौशल्या के घर में जन्म राम ने पाया
ठुमक-ठुमक आँगन में चलकर सबका हृदय जुड़ाया
पुत्र प्रेम में थे निमग्न कौशल्या माँ के प्राण
माँ तेरी समता में फीका-सा लगता भगवान

दे मातृत्व देवकी को यसुदा की गोद सुहाई
ले लकुटी वन-वन भटके गोचारण कियो कन्हाई
सारे ब्रजमंडल में गूँजी थी वंशी की तान
माँ तेरी समता में फीका-सा लगता भगवान

तेरी समता में तू ही है मिले न उपमा कोई
तू न कभी निज सुत से रूठी मृदुता अमित समोई
लाड़-प्यार से सदा सिखाया तूने सच्चा ज्ञान
माँ तेरी समता में फीका-सा लगता भगवान

कभी न विचलित हुई रही सेवा में भूखी प्यासी
समझ पुत्र को रुग्ण मनौती मानी रही उपासी
प्रेमामृत नित पिला पिलाकर किया सतत कल्याण
माँ तेरी समता में फीका-सा लगता भगवान

‘विकल’ न होने दिया पुत्र को कभी न हिम्मत हारी
सदय अदालत है सुत हित में सुख-दुख में महतारी
काँटों पर चलकर भी तूने दिया अभय का दान
माँ तेरी समता में फीका-सा लगता भगवान

– जगदीश प्रसाद सारस्वत ‘विकल’

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हज़ारों दुखड़े सहती माँ

हज़ारों दुखड़े सहती है माँ
फिर भी कुछ ना कहती है माँ

हमारा बेटा फले औ’ फूले
यही तो मंतर पढ़ती है माँ

हमारे कपड़े कलम औ’ कॉपी
बड़े जतन से रखती है माँ

बना रहे घर बँटे न आँगन
इसी से सबकी सहती है माँ

रहे सलामत चिराग घर का
यही दुआ बस करती है माँ

बढ़े उदासी मन में जब जब
बहुत याद में रहती है माँ

नज़र का कांटा कहते हैं सब
जिगर का टुकड़ा कहती है माँ

मनोज मेरे हृदय में हरदम
ईश्वर जैसी रहती है माँ

– मनोज ‘भावुक’

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ममता की मूरत

क्या सीरत क्या सूरत थी
माँ ममता की मूरत थी

पाँव छुए और काम बने
अम्मा एक महूरत थी

बस्ती भर के दुख सुख में
एक अहम ज़रूरत थी

सच कहते हैं माँ हमको
तेरी बहुत ज़रूरत थी

– मंगल नसीम

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माँ मैं फिर

माँ मैं फिर जीना चाहता हूँ, तुम्हारा प्यारा बच्चा बनकर
माँ मैं फिर सोना चाहता हूँ, तुम्हारी लोरी सुनकर
माँ मैं फिर दुनिया की तपिश का सामना करना चाहता हूँ, तुम्हारे आँचल की छाया पाकर
माँ मैं फिर अपनी सारी चिंताएँ भूल जाना चाहता हूँ, तुम्हारी गोद में सिर रखकर
माँ मैं फिर अपनी भूख मिटाना चाहता हूँ, तुम्हारे हाथों की बनी सूखी रोटी खाकर
माँ मैं फिर चलना चाहता हूँ, तुम्हारी ऊँगली पकड़ कर
माँ मैं फिर जगना चाहता हूँ, तुम्हारे कदमों की आहट पाकर
माँ मैं फिर निर्भीक होना चाहता हूँ, तुम्हारा साथ पाकर
माँ मैं फिर सुखी होना चाहता हूँ, तुम्हारी दुआएँ पाकर
माँ मैं फिर अपनी गलतियाँ सुधारना चाहता हूँ, तुम्हारी चपत पाकर
माँ मैं फिर संवरना चाहता हूँ, तुम्हारा स्नेह पाकर
क्योंकि माँ मैंने तुम्हारे बिना खुद को अधूरा पाया है. मैंने तुम्हारी कमी महसूस की है .
– द्वारा अभिषेक मिश्र ( Abhi )

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माँ के लिए

साल के बाद
आया है यह दिन
करने लगे हैं सब याद
पल छिन
तुम ना भूली एक भी चोट या खुशी
ना तुमने भुलाया
मेरा कोई जन्म दिन
और मैं
जो तुम्हारी परछाई हूँ
वक्त की चाल-
रोज़गार की ढाल
सब बना लिए मैंने औज़ार
पर माँ!
नासमझ जान कर
माफ़ करना
करती हूँ तुमको प्यार
मैं हर पल
खामोशी तनहाई में
अर्पण किए
मैंने अपनी श्रद्धा के फूल तुमको
जानती हूँ
मिले हैं वो तुमको
क्योंकि
देखी है मैंने तुम्हारी निगाह
प्यार गौरव से भरी मुझ पर
जब भी मैं तुम्हारे बताए
उसूलों पर चलती हूँ चुपचाप
माँ!
मुझमें इतनी शक्ति भर देना
गौरव से सर उठा रहे तुम्हारा
कर जाऊँ ऐसा कुछ जीवन में
बन जाऊँ
हर माँ की आँख का सितारा
आज मदर्स डे के दिन
“अर्चना” कर रही हूँ मैं तुम्हारी
श्रद्धा, गौरव और विश्वास के चंद फूल लिए

-अर्चना हरित

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अम्मा

चिंतन दर्शन जीवन सर्जन
रूह नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर शराबा
सूनापन तनहाई अम्मा

उसने खुद़ को खोकर मुझमें
एक नया आकार लिया है,
धरती अंबर आग हवा जल
जैसी ही सच्चाई अम्मा

सारे रिश्ते- जेठ दुपहरी
गर्म हवा आतिश अंगारे
झरना दरिया झील समंदर
भीनी-सी पुरवाई अम्मा

घर में झीने रिश्ते मैंने
लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती थी
जाने कब तुरपाई अम्मा

बाबू जी गुज़रे, आपस में-
सब चीज़ें तक़सीम हुई तब-
मैं घर में सबसे छोटा था
मेरे हिस्से आई अम्मा

– द्वारा आलोक श्रीवास्तव

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माँ तुम गंगाजल होती हो

मेरी ही यादों में खोई
अक्सर तुम पागल होती हो
माँ तुम गंगा-जल होती हो!

जीवन भर दुःख के पहाड़ पर
तुम पीती आँसू के सागर
फिर भी महकाती फूलों-सा
मन का सूना संवत्सर

जब-जब हम लय गति से भटकें
तब-तब तुम मादल होती हो।

व्रत, उत्सव, मेले की गणना
कभी न तुम भूला करती हो
सम्बन्धों की डोर पकड कर
आजीवन झूला करती हो

तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से
ज्यादा निर्मल होती हो।

पल-पल जगती-सी आँखों में
मेरी ख़ातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को
मंदिर में घंटियाँ बजाती

जब-जब ये आँखें धुंधलाती
तब-तब तुम काजल होती हो।

हम तो नहीं भगीरथ जैसे
कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो ख़ुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें

तुझ पर फूल चढ़ाएँ कैसे
तुम तो स्वयं कमल होती हो।
-जयकृष्ण राय तुषार

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ममता की सुधियाँ

जब कभी शाम के साये मंडराते हैं
मैं दिवाकिरण की आहट को रोक लेती हूँ
और सायास एक बार
उस तुलसी को पूजती हूँ
जिसे रोपा था मेरी माँ ने
नैनीताल जाने से पहले
जब हम इसी आँगन में लौटे थे
तब मैं उस माँ की याद में रो भी न सकी थी
वह माँ जिसके सुमधुर गान फिर कभी सुन न सकी थी
वह माँ जो उसी आँगन में बैठ कर मुझे अल्पना उकेरना सिखा न सकी थी
वह माँ जिसके बनाये व्यंजनों में मेरा भाग केवल नमकीन था
वह माँ जिसके वस्त्रों में सहेजा गया ममत्व
मेरी विरासत न बन
एक परंपरा बन गया था
वह माँ जिसके पुनर्वास के लिए
हमने सहेजे थे कंदील और
हम बैठे थे टिमटिमाते दीपों की छाया में
और बैठे ही रहे थे

– सोहिनी

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प्यारी माँ

माँ प्यारी माँ

कोशिश की थी
कविता लिखने की
बरसों पहले
छोटी-सी आयु में

सीख रहा था छंद कोई
पंक्ति बन रही थी
‘माँ, प्यारी माँ’
तेरे ऋण है मुझ पर हज़ार

बढ़ न सका आगे
उलझनों में रह गया
बढ़ रहा हूँ आज
माँ प्यारी माँ

तीरथ करती हो
करते रहना
पुण्य करती हो
करते रहना

छत है तेरे पुण्यों की
करेगी रक्षा हम बच्चों की
माँ प्यारी माँ

– अश्विन गांधी

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माँ के नाम

बचपन में अच्छी लगे यौवन में नादान।
आती याद उम्र ढ़ले क्या थी माँ कल्यान।।१।।

करना माँ को खुश अगर कहते लोग तमाम।
रौशन अपने काम से करो पिता का नाम।।२।।

विद्या पाई आपने बने महा विद्वान।
माता पहली गुरु है सबकी ही कल्यान।।३।।

कैसे बचपन कट गया बिन चिंता कल्यान।
पर्दे पीछे माँ रही बन मेरा भगवान।।४।।

माता देती सपन है बच्चों को कल्यान।
उनको करता पूर्ण जो बनता वही महान।।५।।

बच्चे से पूछो जरा सबसे अच्छा कौन।
उंगली उठे उधर जिधर माँ बैठी हो मौन।।६।।

माँ कर देती माफ़ है कितने करो गुनाह।
अपने बच्चों के लिए उसका प्रेम अथाह।।७।।

-सरदार कल्याण सिंह

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माँ

चूल्हे की
जलती रोटी सी
तेज आँच में जलती माँ !
भीतर -भीतर
बलके फिर भी
बाहर नहीं उबलती माँ !

धागे -धागे
यादें बुनती ,
खुद को
नई रुई सा धुनती ,
दिन भर
तनी ताँत सी बजती
घर -आँगन में चलती माँ !

सिर पर
रखे हुए पूरा घर
अपनी –
भूख -प्यास से ऊपर ,
घर को
नया जन्म देने में
धीरे -धीरे गलती माँ !

फटी -पुरानी
मैली धोती ,
साँस -साँस में
खुशबू बोती ,
धूप -छाँह में
बनी एक सी
चेहरा नहीं बदलती माँ !

कौशलेन्द्र

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अम्मा : एक कथा गीत

थोड़ी थोड़ी धूप निकलती थोड़ी बदली छाई है
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

शॉल सरक कर कांधों से उजले पाँवों तक आया है
यादों के आकाश का टुकड़ा फटी दरी पर छाया है
पहले उसको फ़ुर्सत कब थी छत के ऊपर आने की
उसकी पहली चिंता थी घर को जोड़ बनाने की
बहुत दिनों पर धूप का दर्पण देख रही परछाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

सिकुड़ी सिमटी उस लड़की को दुनिया की काली कथा मिली
पापा के हिस्से का कर्ज़ मिला सबके हिस्से की व्यथा मिली
बिखरे घर को जोड़ रही थी काल चक्र को मोड़ रही थी
लालटेन-सी जलती-बुझती गहन अंधेरे तोड़ रही थी
सन्नाटे में गूँज रही वह धीमी-सी शहनाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

दूर गाँव से आई थी वह दादा कहते बच्ची है
चाचा कहते भाभी मेरी फूलों से भी अच्छी है
दादी को वह हँसती-गाती अनगढ़-सी गुड़िया लगती थी
छोटा मैं था- मुझको तो वह आमों की बगिया लगती थी
जीवन की इस कड़ी धूप में अब भी वह अमराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

नींद नहीं थी लेकिन थोड़े छोटे-छोटे सपने थे
हरे किनारे वाली साड़ी गोटे-गोटे सपने थे
रात रात भर चिड़िया जगती पत्ता-पत्ता सेती थी
कभी-कभी आँचल का कोना आँखों पर धर लेती थी
धुंध और कोहरे में डूबी अम्मा एक तराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

हँसती थी तो घर में घी के दीए जलते थे
फूल साथ में दामन उसका थामे चलते थे
धीरे धीरे घने बाल वे जाते हुए लगे
दोनों आँखों के नीचे दो काले चाँद उगे
आज चलन से बाहर जैसे अम्मा आना पाई है!

पापा को दरवाज़े तक वह छोड़ लौटती थी
आँखों में कुछ काले बादल जोड़ लौटती थी
गहराती उन रातों में वह जलती रहती थी
पूरे घर में किरन सरीखी चलती रहती थी
जीवन में जो नहीं मिला उन सबकी माँ भरपाई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

बड़े भागते तीखे दिन वह धीमी शांत बहा करती थी
शायद उसके भीतर दुनिया कोई और रहा करती थी
खूब जतन से सींचा उसने फ़सल फ़सल को खेत खेत को
उसकी आँखें पढ़ लेती थीं नदी नदी को रेत रेत को
अम्मा कोई नाव डूबती बार बार उतराई है!
बहुत दिनों पर आज अचानक अम्मा छत पर आई है!

– सुधांशु उपाध्याय

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अम्मा चली गई

पूजा-घर का दीप बुझा है
अम्मा चली गई.

अंत समय के लिए सहेजा
गंगा-जल भी नहीं पिया
इच्छा तो कितनी थी लेकिन
कोई तीरथ नहीं किया
बेटों पर विश्वास बडा था
आखिर छली गई.

लोहे की संदूक खुली
भाभी ने लुगडे छाँट लिये
औ’ सुनार से वजन करा कर
सबने गहने बाँट लिये
फिर उजले संघर्षो पर भी
कालिख मली गई.

रिश्तेदारों की पंचायत
घर की फाँके, चटखारे
उसकी इच्छाओं, हिदायतों
सपनों पर फेरे आरे
देख न पाती बिखरे घर को
अम्मा! भली गई

-शशिकांत गीते

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अंधियारी रातों में

अंधियारी रातों में मुझको
थपकी देकर कभी सुलाती
कभी प्यार से मुझे चूमती
कभी डाँटकर पास बुलाती

कभी आँख के आँसू मेरे
आँचल से पोंछा करती वो
सपनों के झूलों में अक्सर
धीरे-धीरे मुझे झुलाती

सब दुनिया से रूठ रपटकर
जब मैं बेमन से सो जाता
हौले से वो चादर खींचे
अपने सीने मुझे लगाती

-अमित कुलश्रेष्ठ

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माँ की ममता

जन्म दात्री
ममता की पवित्र मूर्ति
रक्त कणो से अभिसिंचित कर
नव पुष्प खिलाती

स्नेह निर्झर झरता
माँ की मृदु लोरी से
हर पल अंक से चिपटाए
उर्जा भरती प्राणो में
विकसित होती पंखुडिया
ममता की छावो में

सब कुछ न्यौछावर
उस ममता की वेदी पर
जिसके
आँचल की साया में
हर सुख का सागर!

– बृजेशकुमार शुक्ला

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माँ हमारी सदानीरा

माँ हमारी सदानीरा नदी जैसी
महक है वह
फूल वन की
सघन मीठी छाँव जैसी
घने कोहरे में
सुनहरी रोशनी के
ठाँव जैसी
नेह का अमरित पिलाती
माँ हमारी है गंभीरा नदी जैसी

सुबह मिलती
धूप बन कर
शाम कोमल छाँव हो कर
रात भर
रहती अकेली
वह अंधेरों के तटों पर
और रहती सदा हँसती
माँ हमारी महाधीरा नदी जैसी

एक मंदिर
ढाई आखर का
उसी की आरती वह
रोज़ नहला
नेहजल से
हम सभी को तारती वह
हर तरफ़ विस्तार उसका
माँ हमारी सिंधुतीरा नदी जैसी

– कुमार रवींद्र

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स्नेहपूर्ण स्पर्श

माँ तुम्हारा स्नेहपूर्ण स्पर्श
अब भी सहलाता है मेरे माथे को
तुम्हारी करुणा से भरी आँखें
अब भी झुकती हैं मेरे चेहरे पर
जीवन की खूंटी पर
उदासी का थैला टाँगते
अब भी कानों में पड़ता है
तुम्हारा स्वर
कितना थक गई हो बेटी
और तुम्हारे निर्बल हाथों को मैं
महसूस करती हूँ अपनी पीठ पर
माँ
क्या तुम अब सचमुच नहीं हो
नहीं,
मेरी आस्था, मेरा विश्वास, मेरी आशा
सब यह कहते हैं कि माँ तुम हौ
मेरी आँखों के दिपते उजास में
मेरे कंठ के माधुर्य में
चूल्हे की गुनगुनी भोर में
दरवाज़े की सांकल में
मीरा और सूर के पदों में
मानस की चौपाई में
माँ
मेरे चारों ओर घूमती यह धरती
तुम्हारा ही तो विस्तार है।

– शीला मिश्रा

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याद तुम्हारी आई

हाँ माँ याद तुम्हारी आई, कंठ रूँधा आँखें भर आई
फिर स्मृति के घेरों में तुम मुझे बुलाने आई
मैं अबोध बालक-सा सिसका सुधि बदरी बरसाई
बालेपन की कथा कहानी पुनः स्मरण आई

त्याग तपस्या तिरस्कार सब सहन किया माँ तुमने
कर्म पथिक बन कर माँ तुमने अपनी लाज निभाई
तुमसे ही तो मिला है जो कुछ उसको बाँट रहा हूँ
तुम उदार मन की माता थीं तुमसे जीवन की निधि पाई

नहीं सिखाया कभी किसी को दुख पहुँचाना
नहीं सिखाया लोभ कि जिसका अन्त बड़ा दुखदाई
स्वच्छ सरल जीवन की माँ तुमसे ही मिली है शिक्षा
नहीं चाहिए जग के कंचन ‘औ झूठी पृभुताई

मुझे तेरा आशीष चाहिए और नहीं कुछ माँगू
सदा दुखी मन को बहला कर हर लूँ पीर पराई
यदि मैं ऐसा कर पाऊँ तो जीवन सफल बनाऊँ
तेरे चरणो में नत हो माँ तेरी ही महिमा गाई

– भगवत शरण श्रीवास्तव ‘शरण’

 

 

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